ऊं श्री विष्णुरूपाय महर्षि भृगवे नमो नमः
In the chapter called Vibhutyog of Srimad Bhagavad Gita, the Lord has said – Maharshinam Bhrigurham
That is, among the great sages, I am Bhrigu.
In the eleventh canto of the Srimad Bhagavatam, Lord Krishna tells Uddhava:
brahmarshinam bhrigurham
That is, I am Bhrigu among the brahmarshis.
It is a matter of curiosity that who is this Maharishi Bhrigu? Whose son? What is their lineage? And what are their characteristics?
India is a holy land. The Sanatan Dharma-culture of this country has been explained by the sages and sages through their ascetic life. Maharishi Bhrigu has become one of the best sages among these sages.
He is known as the Manas Putra of Brahmaji. According to the Mahabharata, they originated from the lotus heart of Brahmaji at the beginning of the universe. They are also believed to have originated from the skin of Lord Brahma. Bhrik is called Jwala, the sages who were born with him are called Bhrigu. Such an etymology of the name ‘Bhrigu’ is given in the Mahabharata. From this it is known that from the very beginning he was an idol of penance. He is also called the son of Varuna from Kalpavidh. Avadhoot Shikhamani Bhagwan Dutt has been called his adorable Gurudev. Bhriguji has the distinction of being the seer-sage of many Vedic hymns. According to the Puranas, his fame and two Shaktiswaroopa Bharyas named Puloma have been told. The description of their vast family is found in many ancient texts. The names of Dhata, Vidhata, Ushna refer to sages like Shukra and Chyavan etc. as their sons, as well as a daughter named Shri, who was married to Lord Vishnu. His descendants were Aurva, Richik, Jamadagni, Markandeya, Shaunak etc. Lord Parashurama is known as Bhrigukula Shiromani, who expanded the fame of the Bhargava clan. The count of two Bhargavas Markandeya Muni and Lord Parashudhari among the eight Chiranjeevis is a sign of the pride of the Bhargava clan. Bhrigu Muni is the pinnacle of the Bhargava gotra.
In the tenth skandha of Shrimad Bhagwat, a legend is mentioned that once on the banks of river Punyatoya Saraswati, the sages began to consult on the subject who could be the presiding deity of the yagya among the trinity. When he could not reach any conclusion even after much deliberation, he urged Bhrigumuni to decide it. To solve this question, sage Bhrigu went out to test the trinity. Brahmaji and Lord went to Shankar, but after not getting them according to their expectation, they finally reached Vaikuntha. There he suddenly kicked Lord Seshasayee’s chest. Karunanidhan Shrihari got up quickly and started caressing the monk’s feet and saying-
अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने।
इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना।।
पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्।
पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा।
अद्याहं भगवँल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्।
वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः।।
श्रीमद्भाग॰ १०/८९/१०-१२
O great man! Your feet are very soft. Purify me, my world and the Lokpals who are present in me with your feet, who bestow pilgrimage on pilgrimages. Being purified by your footsteps, today I have become the only love worshiper of Lakshmi. Seeing this gentleness and sattvaguna predominance of Srihari, Bhrigumuni bowed down to him and declared the superiority of Srihari in front of Munivrinda. These sages have introduced many human-life nourishing disciplines like Mantra, Tantra, Astrology, Yagya Vigyan, Dhyana-Yoga, Karmavipaka Shastra, Ayurveda, Astronomy and Vastu Shastra etc. But they are especially known for Karmavipaka Vidya and Jyotirvidya. The book Bhrigusamhita by Bhrigumuni is a unique demonstration of ancient sage wisdom. This book is based on the principles of previous birth and Karma and is received in the form of Bhrigu-Shukra dialogue, in which there is an account of the births and births of Manuj. This book is a proof of the supernatural power of Bhrigumuni and his extraterrestrial Vaidusya, and is an object beyond the reach of modern knowledge and science. Even today, this text is partially available in handwritten form at Varanasi, Pratapgarh, Delhi, Meerut, Hoshiarpur, Pune, Koroi (Rajasthan) and many places in South India, from which innumerable people consider themselves blessed to receive guidance. Lalitamba is the Kuldevi of Bhrigumuni. He is also a teacher of Bagla Vidya, that is why he is also called Hlinvidyopadeshta. There are many hymns in praise of Bhrigumuni, which give an introduction to his virtues and glory. In these stotras, he has been designated as Atmvetta, Muninamuttamacharya, Maharishinam Chandramouli, Yogarnavamanthani Hari, Bhaktabhavi, Bhaktabodhi, Sarvashastrapravatak, Trikalgya, Karmashastrapravakta, Bhavarakshak etc.
Many places in India are said to be related to them, in which the holy region of holy rivers like Ganga, Yamuna, Saraswati and Narmada, Vishalapuri, Gandhamadan mountain, Bhrigu Ashram-Anupshahar, Bhrigu Samhita Sansthan (Civil Line) Pratapgarh (U.P.), Bhitaura Fatehpur, Naimisharanya, Ballia, Bhrigukamandalu-Amarkantak, Bhedaghat, Khedbrahma, Bhrigukachha and Bhrigutung, Bhrigujheel, Shyamlavan, Tattapani, Karsog etc. The specialty of Bhrigumuni is that even today in Kalikal, he is working for the betterment of human beings.
प्राचीन भृगुसंहिता दुर्लभ पाण्डुलिपि
श्रीमद्भगवद्गीता के विभूतियोग नामक अध्याय में भगवान् ने कहा है-
महर्षीणां भृगुरहम्
अर्थात् महर्षियों में मैं भृगु हूँ।
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में भगवान् श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं-
ब्रह्मर्षीणां भृगुरहम्
अर्थात् ब्रह्मर्षियों में मैं भृगु हूँ।
यह जिज्ञासा का विषय है कि ये महर्षि भृगु आखिर हैं कौन? किसके पुत्र हैं? इनका वंश क्या है? तथा इनका वैशिष्ट्य क्या है?
भारतवर्ष एक पुण्यभूमि है। इस देश के सनातन धर्म- संस्कृति की व्याख्या ऋषि- मुनियों ने अपने तपःपूत जीवन के द्वारा की है। इन्हीं ऋषि- मुनियों में एक श्रेष्ठ ऋषि हुए हैं महर्षि भृगु।
ये ब्रह्माजी के मानस पुत्र के रूप में जाने जाते हैं। महाभारत के अनुसार सृष्टिक्रम के आरम्भ में इनका प्रादुर्भाव ब्रह्माजी के हृदयकमल से हुआ है। कल्पान्तर से इन्हें ब्रह्माजी की त्वचा से भी उत्पन्न माना जाता है। भृक् ज्वाला को कहते हैं, जो मुनि उसके साथ उत्पन्न हुए हों उन्हें भृगु कहते हैं ‘भृगु’ नाम की ऐसी व्युत्पत्ति महाभारत में दी गई है। इससे ज्ञात होता है कि यह आरम्भ से ही तप की प्रतिमूर्ति थे। कल्पभेद से इन्हें वरुण का पुत्र भी कहा जाता है। अवधूत शिखामणि भगवान् दत्त इनके आराध्य गुरुदेव कहे गए हैं। भृगुजी को अनेक वैदिक सूक्तों के द्रष्टा-ऋषि होने का गौरव प्राप्त है। पुराणों के अनुसार इनकी ख्याति तथा पुलोमा नाम की दो शक्तिस्वरूपा भार्याएँ बताई गई हैं। इनके विशाल कुल का वर्णन अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। धाता, विधाता, उशना नामान्तर से शुक्र तथा च्यवन आदि ऋषियों का इनके पुत्रों के रूप में उल्लेख मिलता है तथा साथ ही श्री नाम की एक कन्या भी, जिसका विवाह भगवान् विष्णु के साथ हुआ। इन्हीं के वंशज और्व, ऋचीक, जमदग्नि, मार्कण्डेय, शौनक आदि ऋषिगण हुए। भगवान् परशुराम तो भृगुकुल शिरोमणि के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने भार्गव कुल की कीर्ति-कौमुदी का चतुर्दिक् विस्तार किया। अष्ट चिरंजीवियों में दो भार्गवों मार्कण्डेय मुनि तथा भगवान् परशुधारी की गणना होना भार्गव कुल के गौरव का द्योतक है। भृगु मुनि भार्गव गोत्र के शिखर पुरुष हैं।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में एक आख्यान उपवर्णित है कि एक बार ऋषिगण पुण्यतोया सरस्वती नदी के तट पर इस विषय पर मन्त्रणा करने लगे कि त्रिदेवों में यज्ञ का अधिष्ठातृ देव कौन हो सकता है। बहुत विचार करने पर भी जब वे किसी निष्कर्ष पर न पहुँच पाए तो उन्होंने भृगुमुनि से इसका निर्णय करने का आग्रह किया। इस प्रश्न के समाधान हेतु भृगु ऋषि त्रिदेवों की परीक्षा लेने निकल पड़े। ब्रह्माजी व भगवान् शङ्कर के पास गए पर उन्हें अपनी अपेक्षा के अनुरूप न पाकर अन्त में वे वैकुण्ठ में पहुँच गए। वहाँ अकस्मात् भगवान् शेषशायी के वक्षःस्थल पर लात धर दी। करुणानिधान श्रीहरि झट से उठकर मुनिवर के पैर सहलाने लगे व कहने लगे कि-
अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने।
इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना।।
पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्।
पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा।
अद्याहं भगवँल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्।
वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः।।
श्रीमद्भाग॰ १०/८९/१०-१२
हे महामुने! आपके चरण अतीव कोमल हैं। तीर्थों को भी तीर्थत्व प्रदान करने वाले अपने चरणोदक से मुझे, मेरे लोक तथा मुझ में विद्यमान लोकपालों को पवित्र कर दीजिए। आपके पाद प्रहार से पावन होकर आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र प्रेम भाजन बन गया हूँ। श्रीहरि के इस सौमनस्य व सत्वगुण प्रधानता को देखकर भृगुमुनि उनके प्रति नतमस्तक हो गए और मुनिवृन्द के समक्ष उन्होंने श्रीहरि की श्रेष्ठता का उद्घोष किया। इन ऋषिवर ने मन्त्र, तन्त्र, ज्योतिष, यज्ञविज्ञान, ध्यान-योग, कर्मविपाक शास्त्र, आयुर्वेद, खगोलविद्या व वास्तुशास्त्र आदि अनेकानेक मानव-जीवन पोषक विद्याओं का प्रवर्तन किया है परन्तु कर्मविपाक विद्या व ज्योतिर्विद्या के लिए तो ये विशेष रूप से जाने जाते हैं। भृगुमुनि कृत भृगुसंहिता ग्रन्थ प्राचीन ऋषिप्रज्ञा का अनुपम निदर्शन है। यह ग्रन्थ पूर्वजन्म व कर्मसिद्धान्त पर आधारित है तथा भृगु-शुक्र संवाद रूप में प्राप्त होता है जिसमें मनुजों के जन्म-जन्मान्तरों का लेखा-जोखा है। यह ग्रन्थ भृगुमुनि के अलौकिक योगबल व इनके लोकोत्तर वैदुष्य का प्रमाणभूत है और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की पहुँच से परे की वस्तु है। आज भी यह ग्रन्थ अंशांश रूप से वाराणसी, प्रतापगढ़, दिल्ली, मेरठ, होशियारपुर, पुणे, कोरोई (राजस्थान) तथा दक्षिण भारत के अनेक स्थानों पर हस्तलिखित रूप में उपलब्ध है जिससे असंख्य जन मार्गदर्शन प्राप्त कर अपने आपको धन्य मानते हैं। ललिताम्बा भृगुमुनि की कुलदेवी हैं। ये बगला विद्या के भी आचार्य हैं इसीलिए इन्हें ह्लींविद्योपदेष्टा भी कहा गया है। भृगुमुनि की स्तुति में अनेक स्तोत्र प्राप्त होते हैं जो इनके गुण गौरव का परिचय देते हैं। इन स्तोत्रों में इन्हें आत्मवेत्ता, मुनीनामुत्तमाचार्य, महर्षीणां चन्द्रमौलि, योगार्णवमन्थनी हरि, भक्तभावी, भक्तबोधी, सर्वशास्त्रप्रर्वतक, त्रिकालज्ञ, कर्मशास्त्रप्रवक्ता, भवरक्षक आदि चारुपदों से अभिहित किया गया है।
भारतवर्ष में अनेक स्थान इनसे सम्बन्धित बताए जाते हैं जिनमें गङ्गा, यमुना, सरस्वती व नर्मदा आदि पुण्य नदियों के पावन प्रदेश, विशालापुरी, गन्धमादन पर्वत, भृगु आश्रम-अनूपशहर, भृगु संहिता संस्थान (सिविल लाइन) प्रतापगढ़ (उ.प्र.), भिटौरा-फतेहपुर, नैमिषारण्य, बलिया, भृगुकमण्डलु-अमरकण्टक, भेड़ाघाट, खेदब्रह्मा, भृगुकच्छ व हिमगिरि प्रान्त के भृगुतुङ्ग, भृगुझील, श्यामलावन, तत्तापानी, करसोग आदि स्थान हैं। भृगुमुनि का वैशिष्ट्य है कि वे आज कलिकाल में भी मानव की भलाई के निमित्त कार्यरत हैं।